Friday, October 29, 2010

श्री रुद्राष्टक Shri Rudrashtak


नमामी शमीशान निर्वाणरूपं।
विभुं व्यापकं ब्रह्‌म वेदस्वरूपं॥

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।
चिदाकाशमाकाशवासं भजेsहं॥१॥

निराकामोंकारमूलं तुरीयं।
गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।

करालं महाकाल कालं कृपालं।
गुणागार संसारपारं नतोsहं॥२॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं।
मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा।
लसभ्दालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥ ३॥

चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं।
प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं।
प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥४॥

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं।
अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं।
भजेsहं भवानीपतिं भावगम्यं॥५॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी।
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥

चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी।
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥६॥

न यावद्‌ उमानाथ पादारवन्दिं।
भजंतीह लोके परे वा नराणां॥

न तावत्सुखं शांति सन्तापनाशं।
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥७॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां।
नतोsहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥

जरा जन्म दुःखौद्य तातप्यमानं।
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥८॥

श्लोक -
रुद्राष्टकमिद्र प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शंम्भुः प्रसीदति॥९॥


चित्र help-mee-god.blogspot.com से साभार