Thursday, May 9, 2013

Shani Mantras - Chant these Mantras to Please the Shani God



Shani Mantras शनि मंत्र 

shanidev mantra

Bho Shanidevh Chandanam Divyam Gandhaaday Sumanoharam ||
Vilepan Chhayaatmajah Chandanam Prati Grihayantaam ||

भो शनिदेवः चन्दनं दिव्यं गन्धादय सुमनोहरम् |
विलेपन छायात्मजः चन्दनं प्रति गृहयन्ताम् ||

Om Shanidev Namastestu Grihaan Karunaa Kar |
Arghyam Ch Falam Sanyuktam Gandhmaalyaakshatai Yutam ||

शनिदेव नमस्तेस्तु गृहाण करूणा कर |
अर्घ्यं फ़लं सन्युक्तं गन्धमाल्याक्षतै युतम् ||

Saajyam ch vartisanyuktam vahninaa yojitam maya |
deepam grihaan devesham trelokya timiraa paham ||

साज्यं वर्तिसन्युक्तं वह्निना योजितं मया |
दीपं गृहाण देवेशं त्रेलोक्य तिमिरा पहम्. भक्त्या दीपं प्रयच्छामि देवाय परमात्मने ||

Parmeshwarah Narvaabhastantu Bhiryuktam Trigunam Devta Mayam |
Up Veetam Maya Dattam Grihaan Parmeshwarah ||

परमेश्वरः नर्वाभस्तन्तु भिर्युक्तं त्रिगुनं देवता मयम् |
उप वीतं मया दत्तं गृहाण परमेश्वरः |



Shani Mantras शनि मंत्र 

shanidev mantra



Neel Kamal Sugandheeni Maalyaadeeni Vai Prabho |
Mayahritaani Pushpaani Grihayantaam Poojanaay Bho ||

नील कमल सुगन्धीनि माल्यादीनि वै प्रभो |
मयाहृतानि पुष्पाणि गृहयन्तां पूजनाय भो ||

Shanidevah Sheetavaatoshna Santraanam Rakshanam Param |
Devlankaaranam Vastra Bhatahah Shatni Prayachchha Men ||

शनिदेवः शीतवातोष्ण संत्राणं लज्जायां रक्षणं परम् |
देवलंकारणम् वस्त्र भत: शान्ति प्रयच्छ में ||

Bho Shanidevah Sarso Tail Vaasit Snigadhataa |
Hetu Tubhyam-Pratigrihayantaam ||

भो शनिदेवः सरसों तैल वासित स्निगधता |
हेतु तुभ्यं-प्रतिगृहयन्ताम् ||

shanidev mantra


Om Sarvtirth Samoodabhootam Padyam Gandhdibhiryutam |
Anisht Hartta Grihanedam Bhagvan Shani Devtaah ||

सर्वतीर्थ समूदभूतं पाद्यं गन्धदिभिर्युतम् |
अनिष्ट हर्त्ता गृहाणेदं भगवन शनि देवताः ||

Om Vichitra Ratna Khachit Devyaastaran Sanyuktam |
Swarn Singhasan Chaaru Griheeshv Shanidev Poojitah ||

विचित्र रत्न खचित दिव्यास्तरण संयुक्तम् |
स्वर्ण सिंहासन चारू गृहीष्व शनिदेव पूजितः ||

Neelambarah Shooldharah Kireetee Gridhrasthit Straskaro Dhanushtamaan |
Chaturbhujah Surya Sutah Prashantah Sadastu Mahyaam Vardolpagaamee ||

नीलाम्बरः शूलधरः किरीटी गृध्रस्थित स्त्रस्करो धनुष्टमान् |
चतुर्भुजः सूर्य सुतः प्रशान्तः सदास्तु मह्यां वरदोल्पगामी ||





Tuesday, April 9, 2013

Argala Stotram - Durga Saptsati (अर्गलास्त्रोतम)


अर्गलास्त्रोतम   Argala Stotram





मार्कण्डेय उवाच


नमश्वण्डिकायै



जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी


दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते  





जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतापहारिणि


जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते  


मधुकैटभविध्वंसि विधातृवरदे नमः
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ३॥

महिषासुरनिर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ४॥

धूम्रनेत्रवधे देवि धर्मकामार्थदायिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ५॥

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ६॥

निशुम्भशुम्भनिर्नाशि त्रिलोक्यशुभदे नमः
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ७॥

वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ८॥

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ९॥

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि १०॥

स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ११॥

चण्डिके सततं युद्धे जयन्ति पापनाशिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि १२॥

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम्
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि १३॥

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि विपुलां श्रियम्
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि १४॥

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि १५॥

सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि १६॥

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि १७॥

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पनिषूदिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि १८॥

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि १९॥

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंसुते परमेश्वरि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि २०॥

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि २१॥

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि २२॥

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि २३॥

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि २४॥

भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि २५॥

तारिणि दुर्गसंसारसागरस्याचलोद्भवे
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि २६॥

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः
सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् २७॥


इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम्